Niru Ashra: 🙇♀️🙇♀️🙇♀️🙇♀️
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 142 !!
सूर्यग्रहण के दिन…..
भाग 3
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अगर तुमनें ऐसा नही किया ………तो मैं कह रही हूँ स्त्री हत्या का पाप हे कृष्ण ! तुम्हारे ऊपर लगेगा …………इतना कहकर चुप हो गयीं थीं ललिता सखी ।
मन्द मुस्कुराये कृष्ण ……ललिता की बातें सुनकर ………
वाह ! ललिता सखी ! वाह ! क्या राधा मेरी नही है ?
क्या राधा की मुझे चिन्ता नही है ………जो इतनें कड़े शब्दों का प्रयोग किया मेरे लिए ! पर कोई बात नही …………मुझे अच्छा लगा कि स्वामिनी श्रीराधारानी के प्रति आप लोगों का कितना अद्भुत प्रेम है …..दिव्य प्रेम है …………मुझे अच्छा लगा ।
इतना कहते हुये ……….श्रीराधारानी के कान में श्याम सुन्दर नें कुछ कहा ………….सुनते ही श्रीराधा उठकर बैठ गयीं थीं ।
पर विचित्र स्थित में थीं श्रीराधा…….वो बस रोये जा रही थीं ।
कृष्ण नें समझाया …………..कृष्ण नें अपनी प्राणप्रिया श्रीराधा को बहुत समझाया ………….
लीला है हमारी ये………….नित्य धाम तो हमारा निकुञ्ज ही है …….हाँ राधे ! हमारा दिव्य वृन्दावन वही तो है ………..वहाँ न संयोग है न वियोग है ……….एक रस …..एक वयस ……एक स्थिति …..।
ये जो भी हो रहा है……..ये सब लीला है……..हे राधिके ! वैकुण्ठ में मैं ही नारायण के रूप में विराजता हूँ …….गोलोक में द्विभुज रूप से ग्वालों के साथ और मैया यशोदा के अंक में वात्सल्य रस में भींगा रहता हूँ ।
कुञ्ज , निकुञ्ज, नित्यनिकुञ्ज, निभृत निकुञ्ज में, रस केलि हमारी चलती ही रहती है………….हम सदा एक रस रहने वाले युग्मतत्व हैं ……..जिसे समझ पाना बड़े बड़े बुद्धिजीवियों के लिये भी असम्भव ही होता है…….ये सब जो आप देख रही हो ……..संयोग है हमारा फिर वियोग होगा …….ये सब तो लीला का एक भाग है ………बाकी मूल रूप से न हमारा कभी बिछुड़ना हुआ था ……न होगा ।
मैं पूर्णब्रह्म ईश्वर हूँ……और तुम मेरी आल्हादिनी शक्ति हो ……तुममें और मुझ में कोई भेद नही है ………..और हे राधे ! जो कोई भेद मानता है ……..वो अपराध करता है …….वो अपराध का भागी है ।
इतना कहकर श्रीकृष्ण नें अपनी प्राणप्रिया श्रीराधारानी को चूम लिया ………………श्रीराधारानी मुस्कुराईं …………
अब कितना समय और है इस लीला में ? श्रीराधारानी नें पूछा था ।
बस ……….कुछ समय ओर ……..इतना कहते हुए अपनें हृदय से लगा लिया श्रीराधारानी को कृष्ण नें ………….
तभी ………….राहू नें सूर्य को ग्रस लिया ……………पूर्ण सूर्य ग्रहण ……….मध्यान्ह में ही रात्रि का भान होनें लगा …………आकाश में तारे भी टिमटिमानें लगे थे ।
पर किसी नें ध्यान नही दिया ……….ग्रहण तो यहाँ पड़ रहा था …….राहू रूपी कृष्ण नें सूर्य रूपी राधा को ग्रस लिया था ……..दोनों आलिंगन बद्ध हो गए थे ……………पर आकाश के ग्रहण को तो सब देख रहे थे …….पर इस ग्रहण को कोई नही देख पा रहा था ।
शेष चरित्र कल –
🌺 राधे राधे🌺
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (115)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपी में दास्य का हेतु-1
भक्ति-दर्शनवाले ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि ईश्वर सर्वज्ञ है, और ‘सर्व’ ईश्वर का ज्ञेय है; ईश्वर जीव और जगत् के कण-कण की जानता है, क्षण-क्षण की जानता है, मन-मन की जानता है, इसलिए उसकी शरण हो जाओ। यह द्रष्टा और तत्पदार्थ के रूप में सर्वज्ञ ईश्वर का वर्णन करता है। द्रष्टा दृश्य के रूप में त्वं-पदार्थ का निरूपण करता है सांख्य। भक्ति में ऐसा है कि विषय विषयी विभाग करके वही आनन्दघन प्रभु भोक्ता है, और सब उसका ही भोग्य है। भक्ति में भी, जो तदीयता है कि हम उसके हैं, उसको मदीयता बनाने के लिए कि भगवान हमारे हैं, वह वृन्दावन की भक्ति है, श्रीकृष्ण की मधुररस की लीलाओं का वर्णन है। इसलिए भोक्ता भोग्य के रूप में तत्पदार्थ का वर्णन करना वृन्दावन के रसिकों का काम है। त्वम् पदार्थ का भोक्ता भोग्य के रूप में वर्णन प्रत्यभिज्ञावादी काश्मीरी शैव करते हैं। विशिष्ट और सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् के रूप में परमेश्वर का निरूपण शरणागतिवादी विशिष्टाद्वैतवादी, श्रीरामानुजाचार्य और द्वैतवादी श्रीमध्वाचार्य करते हैं।
इस प्रकार द्रष्टा-दृश्य के रूप में त्वं-पदार्थ आत्मा का निरूपण, सांख्यवादी और योगवादी करते हैं; जगत् का कर्ता ईश्वर और जगत् उसका कर्म यह निरूपण न्याय करता है और आत्मा कर्ता है और उसके धर्माधर्म के उपभोग के लिए जगत् है, ऐसा निरूपण पूर्वमीमांसा करता है। ऐसे यह विभाग होता है। यह जो अद्वैत वेदान्ती हैं, ये इनमें से किसी के अंतर्गत नहीं है। उनका मार्ग निराला ही है। विडम्बना यह है कि यद्यपि अद्वैत के आधार पर ही सब टिके हैं और उसी का खण्डन करने के लिए अन्य सब दर्शन जोर लगाते हैं। अच्छा, तो आओ, अब यह हमारा वृन्दावनी जो ईश्वर है यह हमारा प्राइवेट है यह सार्वजनिक ईश्वर नहीं है; यह कभी ज्ञान-विज्ञान की कसौटी पर चढ़ाया जानेवाला नहीं है। यह तो साँवरा-सलोना, व्रजराजकुमार के रूप में व्यक्ति-प्राय है, व्यक्ति नहीं है।+
कई लोगों का यह कहना है कि कृष्ण हमारा आत्मा है, परंतु देखो, वृन्दावन के रसिक क्या कहते हैं-
ध्यानातीतं किमतिपरमं ये तु जानन्ति तत्त्वं
तेषामास्तां हृदयकुहरे शुद्धचिन्मात्रमात्मा ।
अस्मांक तु प्रकृतिमधुरः स्मेरवक्त्रारविन्दः
मेघश्यामः कनकपरिधिः पंकजाक्षायमात्मा ।
कोई-कोई ऐसे हैं जो कहते हैं कि जो ध्यान से परे कोई अनिर्वचनीय वस्तु है वह तत्त्व है, और वह शुद्ध चिन्मात्र तत्त्व उनके हृदय की गुहा में आत्मा के रूप में प्रकट हो रहा है; परंतु हमारा आत्मा तो यह है जो प्रकृति मधुर श्रीकृष्ण हैं अर्थात् जो निसर्गमधुर हैं, माने जो स्वाभाविकमधुर हैं; कई चीजें ऐसी हैं जो शक्कर मिलाने से मीठी हुई हैं। लेकिन ये श्रीकृष्ण जो हैं ये शक्कर मिलाने से मीठे नहीं हुए हैं, स्वभाव ही मधुर हैं; ‘मधरेव मधुरं’ मधुर ही मधुर हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् में मधु ब्राह्मण में तेरह विभाग करके मधु-ब्रह्म का वर्णन किया गया है-
सर्वेषां भूतानां इयं पृथिवी मधुः ।
यह पृथिवी संपूर्ण प्राणियो का मधु है; तो यह मधु-मधु कौन है? वही है प्रकृति मधुर श्रीकृष्ण। ये मीठे भी हैं और नमकीन भी; इनमें थोड़ी खटास भी है। ये पूर्ण रसीले हैं। जैसे इमली देखकर, नीबू देखकर जीभ पर पानी आता है, वैसे साँवरे-सलोने, चटपटे, मसालेदार, मन्द-मन्द मुस्कान और प्रेमभरी चितवन वाले श्रीकृष्ण को देखकर जीभ पर नहीं, दिल में पानी आता है, हृदय द्रवति हो जाता है। ‘प्रकृतिमधुरं स्मेरवक्तारविन्दः’ इनका मुखारविन्द हमेशा उत्फुल्ल रहता है, खिला रहता है।++
मेघश्यामः- रसवर्षी मेघ के समान साँवरा इनका वर्ण है और पीताम्बरधारी है, कलमनयन हैं; यह हमारा आत्मा है। यह पुरुष हुआ, भला! कोई कहते हैं कि पुरुष तो वह है जो अन्तर्यामी है, सबका नियन्त्रण करने वाला है यः पृथिव्यां तिष्ठान् पृथिव्या अन्तरः यं पृथ्वी ने वेद यस्य पृथ्वी शरीरम्- जो पृथ्वी में रह करके पृथ्वी के भीतर है, पृथ्वी जिसका शरीर है, जिसको पृथ्वी नहीं जानती, वह अन्तर्यामी है, कोई उसको पुरुष कहते हैं। कोई कहते हैं-
दिव्योह्ममूर्तः पुरुष मध्ये आत्मनि तिष्ठति- ब्रह्म ही पुरुष है।
गोपियों ने कहा कि बाबा, ये पुरुष तुम लोगों को मिलें- एक आत्मापुरुष है, एक अन्तर्यामी पुरुष है, एक ब्रह्मपुरुष है, ऐसा पुरुष-पुरुषों को मिले। हमको तो स्त्रियों-सरीखा पुरुष चाहिए। स्त्रियों-सरीखा पुरुष कौन है? वह है पुरुषभूषण। पुरुषभूषण कौन? स्त्रियों को भूषण बहुत प्यारा होता है न, तो बोलीं- हमको ऐसा पुरुष चाहिए जिसको हम हार की तरह छाती पर पहन सकें। है तुम्हारा कोई आत्मा अन्तर्यामी इस लायक? अरे, हम सौभाग्य के रूप में जिसको धारण कर सकें, वैसा पुरुषभूषण चाहिए; जिसको हम हाथ में कंगन की तरह पहन सकें, जो हमारे अंग-अंग का भूषण हो सके- ‘ऐसा पुरुषभूषण हमको चाहिए। पुरुषभूषण, पुरुषरत्न, पुरुषोत्तम हमको चाहिए। हमको क्षरपुरुष नहीं चाहिए, मरने वाला पुरुष नहीं चाहिए। बोले- अच्छा तो अमर, अक्षरपुरुष ले लो। बोलीं- अक्षरपुरुष भी हमको नहीं चाहिए। कूटस्थब्रह्म हमको नहीं चाहिए। तब कौन चाहिए?’
यस्मात्क्षरमतीतोऽहं अक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।
पुरुषोत्तम चाहिए; माने पुरुषभूषण चाहिए जिसकी बराबरी का कोई नहीं है। अरे, चाहने लगे तो छोटे-मोटे को क्या चाहना, सर्वोपरि को चाहो, क्योंकि सर्वोपरि की जो चाह है वह छोटी-छोटी चीजों के विषय की जो चाह है, उनको मिटा देती है।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
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श्लोक 6 . 39
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एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः |
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते || ३९ ||
एतत् – यह है; मे – मेरा; संशयम् – सन्देह; कृष्ण – हे कृष्ण; छेत्तुम् – दूर करने के लिए; अर्हसि – आपसे प्रार्थना है; अशेषतः – पूर्णतया; त्वत् – आपकी अपेक्षा; अन्यः – दूसरा; संशयस्य – सन्देह का; अस्य – इस; छेत्ता – दूर करने वाला; न – नहीं; हि – निश्चय ही; उपपद्यते – पाया जाना सम्भव है |
भावार्थ
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हे कृष्ण! यही मेरा सन्देह है, और मैं आपसे इसे पूर्णतया दूर करने की प्रार्थना कर रहा हूँ | आपके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो इस सन्देह को नष्ट कर सके |
तात्पर्य
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कृष्ण भूत, वर्तमान तथा भविष्य के जानने वाले हैं | भगवद्गीता के प्रारम्भ में भगवान् ने कहा है कि सारे जीव व्यष्टि रूप में भूतकाल में विद्यमान थे, इस समय विद्यमान हैं और भवबन्धन से मुक्त होने पर भविष्य में भी व्यष्टि रूप में बने रहेंगे | इस प्रकार उन्होंने व्यष्टि जीव के भविष्य के विषयक प्रश्न का स्पष्टीकरण कर दिया है | अब अर्जुन असफल योगियों के भविष्य के विषय में जानना चाहता है | कोई न तो कृष्ण के समान है, न ही उनसे बड़ा | तथाकथित बड़े-बड़े ऋषि तथा दार्शनिक, जो प्रकृति की कृपा पर निर्भर हैं, निश्चय ही उनकी समता नहीं कर सकते | अतः समस्त सन्देहों का पूरा-पूरा उत्तर पाने के लिए कृष्ण का निर्णय अन्तिम तथा पूर्ण है क्योंकि वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य के ज्ञाता हैं, किन्तु उन्हें कोई भी नहीं जानता | कृष्ण तथा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ही जान सकते हैं कि कौन क्या है |
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Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख”- 32 )
गतांक से आगे –
- माधवी जू की *
सुनि विटंकाक्षि प्रियंकराभा भद्र श्रेनि बिलासिका ।
बीरबामा गुनगंभीरा स्यामला सुकुँवारिका ॥
- मालती जू की *
श्रीमती विकुलंदिराभा मनिप्रभा प्रियप्रस्थिका ।
कुसुमसेना चंद्रनी सहचरी कुंदभरिंदका ॥
- चंद्रलेखा जू की *
कलनिभा कलभासिनी बैदग्धिनी बासोज्वला ।
रसज्ञा रुचिदायका सुखदायका संतोषिला ॥
- चपला जू की *
बसंती बसुवंतिकारा नवनिभा नगभूषिता ।
मनोज्ञा मधुमंगला पुष्पाँजुला हासाँकिता ॥
- हिरनी जू की *
केलिसाला सारदक्षा हृदज्ञा सुहृदावती ।
मधुकता मधुमाधवी मधुसंपदा मधुमालती ॥
- कुंजरी जू की *
पुष्पहासा प्रेमकंदा महागंधा माधुरी।
कादंबिका कलसंपदा कोलाहला कुलमंडनी ॥
- सुरभी जू की *
मधुलिहा वैदर्भिनी मधुरोचिनी मुदितांगिनी ।
गुनप्रबोधा बोधिनी बुधिवती वेदप्रकासिनी ॥
- सुभानना जू की *
कोकनिपुना पुन्यगाथा पावनी पटमंजरी।
प्रबोधारा विद्यमाना परसिनी परसंसिनी ॥
*उत्थापन का काल दोपहर चार बजे का है । राजभोग दोपहर बारह बजे कराकर सखियों ने युगल सरकार को सुला दिया है । अब जागेंगे ये चार बजे ….उसी की तैयारी में समस्त सखियाँ लगी हुयी हैं । सखियाँ ही क्यों पूरा निकुँज लगा है । कोई सखियाँ फूल चुनकर माला या फूलों के आभूषण बना रही हैं तो कोई युगल जागेंगे तो उनको भोग लगेगा उस भोग में फल दिए जाएँगे …उन फलों का चुनाव करना है …फल रस दार हों , मीठे हों । श्रीललिता सखी जी जहाँ फूलों के आभूषण तैयार करवा रहीं थीं अपनी सखियों से ….तो श्रीविशाखा सखी और उनका परिकर फलों को देख रहीं हैं ….और उन्हें भोग के लिए तैयार कर रही हैं ।
मुझे हरिप्रिया सखी जी ने अपना शिष्य स्वीकार कर लिया है ….कर ही लिया होगा ….नही तो मेरे जैसे मैं वो अपना समय बर्बाद क्यों करतीं ।
वो देखो …. वो हैं श्रीविशाखा सखी जी की प्रथम सखी ….”माधवी”जी । मुझे हरिप्रिया जी ने दिखाया । माधवी जी बड़ी सुन्दर हैं । ये भी गम्भीर हैं । श्रीविशाखा जी फलों को दिखा रही हैं …..ये रसदार हैं , ये मीठे हैं …..इन्हें इस तरह सजाकर रखना । और भी बहुत कुछ बता रही हैं ….इसके बाद माधवी सखी जी की अष्ट सखियाँ वहाँ उपस्थित हो जाती हैं ।
ये माधवी जी की आठ सखियाँ हैं ……मैंने उन्हें देखा ….प्रणाम किया ।
हरिप्रिया जी इनका नाम बता रही हैं …….
विटकांक्षी जी , प्रियंकराभा जी , भद्रश्रेणी जी , विलासिका जी , वीर वामा जी , गुणमंजरी जी , श्यामला जी और सुकुमारिका जी ।
इन सखियों के नेत्र बड़े सुन्दर थे ……..बड़े बड़े और करुणापूरित ।
अब देखो – हरिप्रिया जी ने मुझे दूसरी और दिखाया ….एक सखी हैं …सुन्दर और कृश कटि वाली हैं …..लता की तरह हिलती अंगों वाली हैं । ये श्रीविशाखा जी की दूसरी सखी हैं …इनका नाम है…..”मालती” जी । और इनके पीछे जो हैं ….सुन्दर सुन्दर थाल लेकर बैठ गयीं हैं ….इन्हीं थालों में ये फल आदि सजायेंगी ……अच्छा , इन मालती जी की अष्टसखियों के नाम सुनो ……
श्रीमती जी , विकुलन्दिराभा जी , मणिभद्रा जी , प्रिय प्रस्थिका जी , कुसुम सेना जी , चंदिनी जी , सहचरी जी , और कुंदभरिंदिका जी ।
इसके बाद ही हरिप्रिया जी ने मुझे दूसरी ओर दिखाया …..उस तरफ भी सखियाँ हैं …..मत्तगज गामिनी की चाल वाली सखियाँ । एक सखी …..जो साँवली हैं ….किन्तु मुख मण्डल चमक रहा है इनका । “चन्द्रलेखा” जी । ये श्रीविशाखा सखी जी की तीसरी सखी हैं । इनके साथ भी अष्ट सखियाँ हैं ……इनके भी पवित्र नामों को सुनो ….हरिप्रिया जी ने मुझे नाम बताये ….
कल निभा जी , कल भासिनी जी , वैदग्धिनी जी , वासोज्वला जी , रसज्ञा जी , रुचिदायिका जी , सुखदायिका जी और संतोषिला जी ।
उस ओर देखो ……वो सब सखियाँ हैं ना , हरिप्रिया जी के कहने से मैंने जब उस ओर भी देखा तो वहाँ सब चंचल सखियाँ थीं …..श्रीविशाखा जी की ये चौथी सखी हैं ….”चपला” जी । इनके साथ अष्ट सखियाँ वो रहीं …….वसंती जी , वसुवंतिका जी , नवनिभा जी , रंगभूषिता जी , मनोज्ञा जी , मधुमंगला जी , पुष्पान्जला जी और हसान्तिका जी । हरिप्रिया जी आनंदित होकर फिर मुझे बताने लगीं ….दिखाने लगीं ….उस ओर पाँचवीं सखी हैं श्रीविशाखा जी की …इनका नाम है ….”हिरनी” जी। हाँ , इनकी चाल देखो …हिरनी की तरह है इनका ये नाम प्रिया जी ने ही रखा है …हिरनी जी । इनकी भी अष्ट सखियाँ हैं …..केलिसाला जी , सार दक्षा जी , हृदज्ञा जी , सुहृदयावती जी , मधुकला जी , मधुमाधवी जी , मधुस्पंदा जी और मधुमालती जी ।
तभी मुझे एक सखी दिखाई दीं …..इनकी विशेषता थी इनमें एक अपूर्व प्रकाश सा झलमला रहा था …इनके अंगों से ……हरिप्रिया जी ने मुझे बताया …ये छटी सखी हैं ….श्रीविशाखा जी की छटी सखी …..इनका नाम है ..”कुंजरी” जी । इनकी अष्ट सखियाँ वो रहीं ……खिलखिलाती इनकी सखियाँ …….पुष्पहासा जी , प्रेमकन्दा जी , महागंधा जी , माधुरी जी , कादम्बिका जी , कलसम्पदा जी , कोलाहला जी और कुलमंडनी जी ।
हरिप्रिया जी ने मुझे बताया …सातवीं सखी , श्रीविशाखा जी की सातवीं सखी हैं …”सुरभि”जी ।
मैंने दर्शन किए उनके …वो अद्भुत रूप लावण्य से भरी थीं …..उनकी अष्ट सखियाँ उनके साथ ही थीं ……मधुलिहा जी , वैदर्भिनी जी , मधुरोचनी जी , मुदिताँगिनी जी , गुण प्रबोधा जी , बोधिनि जी , बुद्धिमती जी और वेद प्रकाशिनी जी ।
हरिप्रिया जी अत्यन्त उत्साहित हैं ……उनका उत्साह देखते ही बन रहा था । वो देख रहे हो ….वो श्रीविशाखा जी की आठवीं सखी हैं ….”सुभानना” जी । इनकी अष्ट सखियाँ हैं ….कोक निपुना जी , पुण्यगाथा जी , पावनी जी , पटमंजरी जी , प्रबोधा जी , विद्यमाना जी , परसिनी जी और परसंसिनी जी । मैंने दर्शन किए , और मैंने देखा कि …ये सब फल आदि भोग की व्यवस्था में ही लगीं थीं …युगल को कैसे रुचिकर फल पवाया जाए …इन सबका यही प्रयास था । अद्भुत सेवा भाव से भरी थीं ये सब सखियाँ । मैंने सबको झुक कर प्रणाम किया था ।
शेष अब कल –
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