Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
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श्लोक 6 . 40
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श्रीभगवानुवाच
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पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते |
न हि कल्याणकृत्कश्र्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति || ४० ||
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; पार्थ – हे पृथापुत्र; न एव – कभी ऐसा नहीं है; इह – इस संसार में; न – कभी नहीं; अमुत्र – अगले जन्म में; विनाशः – नाश; तस्य – उसका; विद्यते – होता है; न – कभी नहीं; हि – निश्चय ही; कल्याण-कृत् – शुभ कार्यों में लगा हुआ; कश्र्चित – कोई भी; दुर्गतिम् – पतन को; तात – हे मेरे मित्र; गच्छति – जाता है |
भावार्थ
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भगवान् ने कहा – हे पृथापुत्र! कल्याण-कार्यों में निरत योगी का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है | हे मित्र! भलाई करने वाला कभी बुरे से पराजित नहीं होता |
तात्पर्य
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श्रीमद्भागवत में (१.५.१७) श्री नारद मुनि व्यासदेव को इस प्रकार उपदेश देते हैं –
त्यक्त्वा स्वधर्मं चरणाम्भुजं हरेर्भजन्नपक्कोऽथ पतेत्ततो यदि |
यत्र क्व वाभद्रमभूदमुष्य किं को वार्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः ||
“यदि कोई समस्त भौतिक आशाओं को त्याग कर भगवान् की शरण में जाता है तो इसमें न तो कोई क्षति होती है और न पतन | दूसरी ओर अभक्त जन अपने-अपने व्यवसाओं में लगे रह सकते हैं फिर भी कुछ प्राप्त नहीं कर पाते |” भौतिक लाभ के लिए अनेक शास्त्रीय तथा लौकिक कार्य हैं | जीवन में आध्यात्मिक उन्नति अर्थात् कृष्णभावनामृत के लिए योगी को समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग करना होता है | कोई यह तर्क कर सकता है कि यदि कृष्णभावनामृत पूर्ण हो जाय तो इससे सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त हो सकती है, किन्तु यदि यह सिद्धि प्राप्त न हो पाई तो भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से मनुष्य को क्षति पहुँचती है | शास्त्रों का आदेश है कि यदि कोई स्वधर्म का आचरण नहीं करता तो उसे पापफल भोगना पड़ता है, अतः जो दिव्य कार्यों को ठीक से नहीं कर पाता उसे फल भोगना होता है | भागवत पुराण आश्र्वस्त करता है कि असफल योगी को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है | भले ही उसे ठीक से स्वधर्माचरण न करने का फल भोगना पड़े तो भी वह घाटे में नहीं रहता क्योंकि शुभ कृष्णभावनामृत कभी विस्मृत नहीं होता | जो इस प्रकार में लगा रहता है वह अगले जन्म में निम्नयोनी में भी जन्म लेकर पहले की भाँति भक्ति करता है | दूसरी ओर, जो केवल नियत कार्यों को दृढ़तापूर्वक करता है, किन्तु यदि उसमें कृष्णभावनामृत का अभाव है तो आवश्यक नहीं कि उसे शुभ फल प्राप्त हो |
इस श्लोक का तात्पर्य इस प्रकार है – मानवता के दो विभाग किये जा सकते हैं – नियमित तथा अनियमित | जो लोग अगले जन्म या मुक्ति के ज्ञान के बिना पाशविक इन्द्रियतृप्ति में लगे रहते हैं वे अनियमित विभाग में आते हैं | जो लोग शास्त्रों में वर्णित कर्तव्य के सिद्धान्तों का पालन करते हैं वे नियमित विभाग में वर्गीकृत होते हैं | अनियमित विभाग के संस्कृत तथा असंस्कृत, शिक्षित तथा अशिक्षित, बली तथा निर्बल लोग पाशविक वृत्तियों से पूर्ण होते हैं | उनके कार्य कभी भी कल्याणकारी नहीं होते क्योंकि पशुओं की भाँति आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन का भोग करते हुए इस संसार में निरन्तर रहते हैं, जो सदा ही दुखमय है | किन्तु जो लोग शास्त्रीय आदेशों के अनुसार संयमित रहते हैं और इस प्रकार क्रमशः कृष्णभावनामृत को प्राप्त होते हैं, वे निश्चित रूप से जीवन में उन्नति करते हैं |
कल्याण-मार्ग के अनुयायिओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है – (१) भौतिक सम्पन्नता का उपभोग करने वाले शास्त्रीय विधि-विधानों के अनुयायी, (२) इस संसार से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्नशील लोग तथा (३) कृष्णभावनामृत के भक्त | प्रथम वर्ग के अनुयायियों को पुनः दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है – सकामकर्मी तथा इन्द्रियतृप्ति की इच्छा न करने वाले | सकामकर्मी जीवन के उच्चतर स्टार तक उठ सकते हैं – यहाँ तक कि स्वर्गलोक को जा सकते हैं तो भी इस संसार से मुक्त न होने के करण वे सही ढंग से शुभ मार्ग का अनुगमन नहीं करते | शुभ कर्म तो वे हैं जिनसे मुक्ति प्राप्त हो | कोई भी ऐसा कार्य जो परम आत्म-साक्षात्कार या देहात्मबुद्धि से मुक्ति की ओर उन्मुख नहीं होता वह रंचमात्र भी कल्याणप्रद नहीं होता | कृष्णभावनामृत सम्बन्धी कार्य हि एकमात्र शुभ कार्य है और जो कृष्णभावनामृत के मार्ग पर प्रगति करने के उद्देश्य से स्वेच्छा से समस्त शारीरिक असुविधाओं को स्वीकार करता है वही घोर तपस्या के द्वारा पूर्णयोगी है, अतः यह पद्धति भी कल्याणप्रद है, अतः जो कोई इस दिशा में यथाशक्य प्रयास करता है उसे कभी अपने पतन के प्रति भयभीत नहीं होना चाहिए।
Niru Ashra: 🌱☘️🌱☘️🌱☘️🌱
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 143 !!
कुरुक्षेत्र में प्रेमियों का महाकुम्भ
भाग 1
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हे वज्रनाभ ! मैं पूर्व में भी कह चुका हूँ ……कुरुक्षेत्र में सूर्यग्रहण के कारण सब आये ही थे………पर “हरिप्रिया” श्रीराधारानी भी आरही हैं …..ये जब सुना….तो सब दौड़ पड़े थे कुरुक्षेत्र की ओर ।
अर्जुन तो इसी दिन की प्रतीक्षा में ही थे …….इंद्रप्रस्थ – हस्तिनापुर कुरुक्षेत्र के पास में ही हैं……..इसलिये पाण्डवों को आनें में कोई दिक्कत भी नही थी……अर्जुन ही विशेष आग्रह कर करके अपनें समस्त परिवार को लेकर आगये थे……..साथ में द्रोपदी भी थीं ……द्रोपदी को दर्शन करनें थे श्रीराधारानी के ।
ग्रहण का स्नान हो गया था…….अब बारी थी दान पुण्य इत्यादि करनें की…….एक यज्ञ का आयोजन भी वसुदेव जी नें रख दिया था ………जिस यज्ञ का पुरोहित हम दोनों को बनाया गया ……आचार्य गर्ग और मैं ( महर्षि शाण्डिल्य ) ।
मैं बहुत प्रसन्न था………आचार्य गर्ग और मैं दोनों बड़े प्रेम से गले मिले थे……..हम लोगों में विनोद भी हुआ…….फिर यज्ञ की तैयारियों में हम सब जुट गए ।
वृन्दावन के शिविर में…….मैया यशोदा के पास कृष्ण की मुख्य अष्ट पटरानीयाँ वन्दन करनें के लिये गयी थीं ।
मैया यशोदा के आनन्द का कोई ठिकाना नही था………
कृष्ण पत्नियों नें मैया यशोदा को सजाया…..साडी पहनाई …..सुन्दर सुन्दर बना दिया………
अरी ! मों बुढ़िया कू सजाय के कहा करोगी ? मैया हँसती हैं ।
रुक्मणी को मैया यशोदा की बृजभाषा बहुत प्रिय लगती है……वो बार बार बातें करती हैं मैया से……..फिर हँसती हैं ।
तुम्हारे छोरा नही है…….बता दो कितनें छोरा छोरी हैं तुम सबके ?
मैया यशोदा के मुख से ये सुनकर सब हँसीं……….खूब हँसीं ।
“दस छोरा हैं और एक छोरी हैं”……….रुक्मणी भी मैया की भाषा में ही थोडा बोलीं……..तो सबनें हँसकर रुक्मणी के लिये तालियाँ बजाईं ।
मैया यशोदा हँसती हुयी बोलीं ……….तेरे ही ग्यारह हैं कि सबन के ?
“सबन के” ………ये कहते हुए खूब हँस रही थीं रुक्मणी ।
फिर तो बहुत हे गए होंगें ? ऊँगली में गिनते हुए बोलीं मैया – 90 बालक है गए …………..मैया की बात पर हँसते हुए सब बोलीं ……….मैया ! सोलह हजार एक सौ आठ हैं हम सब मिलाके ।
मैया हँसी ………………ओह !
ओह नही मैया ! ये तो ईमानदारी के व्याह है तेरे लाला के ।
सत्यभामा आँखें मटकाते हुए रुक्मणी से बोलीं …………..
आप तो सीख गयीं बृजभाषा ! सत्यभामा की बातें सुनकर रुक्मणी नें कहा ……..अब मैं उनसे इसी भाषा में बात करूंगी ……..वो बहुत खुश होंगें…….रुक्मणी नें ये कहते हुए फिर मैया यशोदा को प्रणाम किया था…….और चरण चाँपन करनें लगी थीं ।
ओह ! नन्दराय जी ! आगे बढ़कर चरण छूनें चाहे वसुदेव जी नें …..पर नन्द बाबा किसी से अपनें पाँव नही छूवाते ………..वैसे वसुदेव जी छोटे हैं नन्दबाबा से ………….पर साधू स्वभाव के कारण किसी को भी अपनें चरण इन बाबा नें छुवानें नही दिए ।
नन्दराय जी को वसुदेव नें यज्ञ में विशेष निमन्त्रण दिया था ।
वसुदेव को अपनें हृदय से लगा लिया नन्द जी नें ……….और दोनों के ही अश्रु बहनें लगे थे……………
मैं अपराधी हूँ आपका………मुझे क्षमा करें हे पूज्य नन्दराय जी ।
वसुदेव की हिलकियाँ फूट पड़ी थीं …………वो रोते ही जा रहे थे ।
मैं अपराधी हूँ ……….आपका अपराधी हूँ ……..हे नन्दराय जी !
आज आपके सामनें और इस कुरुक्षेत्र की भूमि में ……..मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ …………बस आपसे मुझे यही आशा है कि इस स्वार्थी वसुदेव को आप क्षमा करेंगें !
आप क्या कह रहे हैं वसुदेव ! ………वसुदेव के कन्धे में हाथ रखते हुए नन्दराय जी नें उन्हें सहज किया ।
ये आपकी महानता है …………आपका साधू स्वभाव तीनों लोकों में वन्दनीय है ………..मेरा पुत्र कृष्ण आपकी चर्चा करते हुये भावुक हो उठता है …….आपका प्रेम ……आपका निःस्वार्थ प्रेम ! और मैं ?
मैं स्वार्थ से भरा हुआ ………..एक स्वार्थी मानव …………
अपनें आँसुओं को पोंछते हुए वसुदेव जी नें कहा –
“आपकी पुत्री का मैं वसुदेव हत्यारा हूँ”………..इतना कहते हुए नन्दराय जी के चरणों में वसुदेव जी गिर गए थे ।
हाँ ………मेरे जैसा स्वार्थी और कौन होगा ……………अपनें पुत्र की रक्षा करनें के लिये मैने आपके पुत्री की बलि चढ़ाई …………..रुदन बढ़ता ही जा रहा था वसुदेव का ।
कंस के भय से मैने अपनें पुत्र को तो बचा लिया …….पर मैं कितना स्वार्थ से भरा हुआ था ……….मैने इतना भी नही सोचा कि वसुदेव तेरा पुत्र, तेरा पुत्र है ……..पर जिसकी पुत्री नवजात ……….उसे उठाकर कंस के हाथों दे दिया, मारनें के लिये …….!
मुझे आप क्षमा करें……..वसुदेव फिर नन्दराय के चरणों में गिरे ।
हे वसुदेव ! बुद्धिमान व्यक्ति बीती हुयी बातों का शोक नही करता ।
ज्ञानी उसे ही कहते हैं …………हे वसुदेव ! जो बीती बातों का शोक नही करता और आनें वाले समय को लेकर भयभीत नही होता …..उसे ही ज्ञानी कहा गया है ………….हे वसुदेव ! शोक को त्यागो ………और यज्ञ के कार्य में लगो ………हम सब तुमसे प्रसन्न हैं ……….
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
🙌 राधे राधे🙌
Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 33 )
गतांक से आगे –
॥ पद ॥
परिचरिज्या में परम प्रवीना। नव-नव केलिकला रस भीना ॥
निस दिन लगी रहत लवलीना । अति रति रँगी अधिक अधीना ॥
सहज सुरंग सिंगारनि साजैं। अतिहि अनूप मनोहर राजें ॥
चढ़ि बढ़ि रहे चोंप चित छाजैं। समबय सुघर स्वरूप बिराजैं ॥
दामिनि सी दमकें तन गोरौं । चंद्र-वदनि सहचरि चहुँ ओरै ॥
जरी जराय सु चितबित चोरेँ। छाजति छबि जिहिं ओर न छोरै ॥
सहचरि पंचमि चंपलता पुनि। सब गुनखानि सुजानि सिरोमनि ॥
मृगलोचनी आदि अठ अलि गुनि। इनिकें आठ-आठ सोऊ सुनि ॥
श्रीचम्पकलता सखी जी , ये पाँचवीं सखी हैं युगल सरकार की ।
हरिप्रिया जी ने मुझे दर्शन कराये । मैंने दर्शन किए …दुबली पतली किन्तु अत्यन्त तेजपूर्ण मुखमण्डल …..साड़ी इन्होंने नीली पहनी थी । जिसमें इनका रूप लावण्य और निखर रहा था । ये सुगन्धमय वातावरण भी बना रही थीं …इनको छूकर जो हवा चलती वो सुवास फैला रही थी पूरे निकुँज में । ये मुस्कुराती कुछ ज़्यादा थीं ओह ! इनकी मुस्कुराहट ! श्रीचम्पकलता सखी जी । इनके साथ इनकी अष्ट सखियाँ भी थीं , सब सखियाँ एक अवस्था की थीं । बराबर वय की । देखने में बड़ा ही सुन्दर लग रहा था । चहकती हुई सब सखियाँ रसपूर्ण वातावरण का निर्माण कर रहीं थीं ।
ये श्रीचम्पकलता सखी जी …इत्र की सेवा करती हैं । ओह ! तभी सुगन्ध फैल रहा है इनके आते ही ….मैंने हरिप्रिया जी को कहा । हाँ , वो देखो , इनकी सखियाँ , ये सब इत्र निकालेंगी फूलों से । अभी ये फूलों का चुनाव कर रही हैं । हरिप्रिया जी के कहने से मैंने जब देखा ….ध्यान से देखा तो श्रीचम्पकलता जी अपनी सखियों को फूल दिखा रहीं थीं ….उनकी डलिया में अनेक पुष्प थे …वो बता रहीं थीं ।
इत्र-सुगन्धित तैल ।
ये महल के रंध्र में इत्र आदि का छिड़काव करती हैं ….फूलों के फूल दान रखती हैं …और जब झरोखा खुलता है …तब उसमें से युगल सरकार को सुगन्ध की वयार मिलती है ।
तो ये पुष्पों का चयन कर रही हैं ? मैंने पूछा ।
हाँ , गुलाब , मोगरा , वेला , चमेली आदि आदि । छीने वस्त्र में चुने पुष्पों को , पुष्पों की पंखुड़ियों को डालकर उसमें जल मिलाकर इत्र तैयार करती हैं ।
अद्भुत ! हरिप्रिया जी की बात सुनकर मैं बोल उठा ….सुगन्ध की सेवा युगलवर की इनके पास है ? मेरी बात का उत्तर देते हुए हरिप्रिया जी बोलीं ….हाँ , ये युगल सरकार को ऋतु अनुसार सुगन्ध प्रदान करती हैं । जैसे ……कुछ सोचकर हरिप्रिया बोलीं ….जैसे …ग्रीष्म ऋतु हो …तो गुलाब ,वेला , मोगरा आदि …..और शरद हो तो – कमल आदि । और ऋतु बसन्त हो तो ….बासंती फूलों का इत्र । ये सब बड़े मनोयोग से करती हैं ….करवाती हैं ये प्रमुख सखी जी …..श्रीचम्पकलता जी । हरिप्रिया जी ने मुझे बताया ।
इनकी अष्ट सखियाँ हैं…..हरिप्रिया जी ने मुझे बताया …..इनके नाम भी मुझे बताये । श्रीचम्पकलता सखी जी की अष्ट सखियाँ …मृगलोचनी जी , मणिकुण्डला जी , शुभ चरिता जी , चंद्रा जी , चंद्रलतिका जी , मण्डली जी , कंदुकनयनी जी और सुमंदिरा जी ।
तभी सब सखियाँ खिलाखिला उठीं थीं ….श्रीचम्पकलता जी ने अपनी सखियों से कुछ कहा था ।
मैंने सबको वहीं अवनी में माथा टेककर प्रणाम किया था ।
शेष अब कल –
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