Niru Ashra: 🌱☘️🌱☘️🌱☘️🌱
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 143 !!
कुरुक्षेत्र में प्रेमियों का महाकुम्भ
भाग 3
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बलराम ……..”मुझे मैया यशोदा से मिलना है” ।
पर अकेले कैसे जाऊँ ? मेरी मैया मुझ से पूछेगी……तेरी बहू कहाँ है ?
रेवती को साथ में लेकर ,
मैया यशोदा के पास, बलराम पहुँच गए थे ।
दुःख होता है आजकल …………….द्वारिका से चलते समय कृष्ण नें मुझ से कहा था ……….आर्य ! आप चलेंगें कुरुक्षेत्र ?
बस इसी बात का दुःख होता है ……..दाऊ ! दाऊ दादा ! कितनें प्रेम से बोलता था वृन्दावन में………पर द्वारिका आते ही मैं “आर्य” बन गया …….मैं अगर मना कर देता कुरुक्षेत्र आनें के लिये… ……..तो मुझ से कोई जिद्द करनें वाला था भी नही………इसलिये मैने शीघ्र ही कह दिया ……’मैं तो जाऊँगा” ।
मुझे कुरुक्षेत्र से क्या मतलब…….मुझे सूर्यग्रहण से भी कोई प्रयोजन नही था……..विशाल यज्ञ का आयोजन ग्रहण पश्चात् पिता जी रखनें वाले हैं ………पर मुझे यज्ञ से भी मतलब नही है ।
मुझे मिलना है अपनी मैया यशोदा से ……….बाबा से ………मेरी कन्हैया की राधा से………….मैं गया था वृन्दावन ……….उफ़ ! दो महिनें रहा वहाँ …………सब एक ही बात पूछते थे ……..कब आएगा कन्हैया ? मैं क्या उत्तर देता ।
सपना जैसा लगता है सब कुछ ………….दो महिनें में मैने वो सब पाया …………जो आज तक नही पा सका हूँ – मैं संकर्षण ।
दाऊ !
मैया यशोदा नें देखा ……..तो आनन्द से बोल उठीं ।
दाऊ और रेवती दोनों नें मैया की चरण वन्दना की थी ।
ये तेरी बहु है ?
सिर में दोनों हाथ रखते हुए आशीर्वाद दे रही थीं मैया ।
हाँ मैया ये तेरी बहु है……….दाऊ नें मुस्कुराते हुए कहा ।
क्या नाम है तेरा ? मैया नें पूछा ……..तो बलराम नें कहा ….रेवती ।
ये गूंगी है ? मैया विनोद करती हैं ।
“रेवती”……….धीरे से बोलीं रेवती ।
दाऊ ! सुन्दर तो बहुत है तेरी बहु ………पर ……….. यशोदा जी कुछ सोच रही हैं ।
मैं सत्ययुग की हूँ ……….रेवती नें स्वयं कहा ।
क्या ? यशोदा मैया चौंक गयीं ……तू सत्ययुग की है ?
हाँ ………….मुझे तो पता ही नही ………मेरे पिता जी रेवत राजा ……उनकी पुत्री हूँ मैं ………..मैं तो छोटी थी उस समय ………मेरे पिता जी को कन्यादान की जल्दी थी ……..क्यों की वो मुझ से मुक्त होकर तप करना चाहते थे ………….रेवती मैया यशोदा को अपनें बारे में बतानें लगी थीं ।
मेरे पिता रेवत राजा ……….मुझे अपनें साथ लेगये ब्रह्म लोक …….ब्रह्मा जी के पास …….और जाकर बोले …….मेरी पुत्री के लिए वर बताओ !
मेरे पिता को क्या पता था कि ………..पृथ्वी में तो कई युग बीत चुके हैं ………….ब्रह्मा जी नें बात समझाई …….और हमें पृथ्वी में भेज दिया ।
हम जब पृथ्वी में आये ………..तब द्वापरयुग चल रहा था …….द्वापर भी बीतनें जा रहा था ………….द्वारिका में “आप से” मेरे पिता जी मिले ….और मेरा विवाह हो गया ।
मैया यशोदा रेवती की बातें सुनकर चकित थीं ।
तभी रोहिणी माँ आगयीं ………….जीजी ! सजल नयन से वन्दन किया यशोदा मैया को ।
कैसी है तू रोहिणी ? मैया यशोदा पूछती हैं …………फिर कहती हैं ….तेरी बहू बहुत सुन्दर है ………..”.द्वापर युग में कोई छोरी नही मिली दाऊ को …..सतयुग की ले आया” …………ये कहते हुए दोनों माताएँ खूब हँसती रहीं ।
“यज्ञ में चलिये…….आपको बुलवाया है’ ………सैनिकों नें आकर सूचना दी ………चल पड़े सब यज्ञ मण्डप की ओर ।
आचार्य गर्ग नें आव्हान किया …..वरुण देवता का………पर ये क्या ! वरुण देवता तो साक्षात् ही प्रकट हो गए थे ।
कुबेर का आव्हान किया आचार्य गर्ग नें ……..साक्षात् कुबेर ही प्रकट हो गए ……..इंद्र का आव्हान किया………पर ये क्या हाथ जोड़ते हुए इंद्र उस यज्ञ में प्रकट हो गए थे ।
आप सब देवता आसन ग्रहण करें………पर ………मैं आचार्य गर्ग आप सब देवताओं से प्रार्थना करके एक प्रश्न करना चाहता हूँ ………
देवताओं नें प्रश्न पूछनें की अनुमति दी ।
सत्ययुग में इस तरह से देवता अपना भाग स्वीकार करते थे ……पर ये तो द्वापर युग है …….वो भी खतम होनें को आया है …………कलियुग प्रारम्भ होनें वाला है ……….आप इस तरह प्रत्यक्ष पधारे हैं ……..कारण मैं जान सकता हूँ ? आचार्य गर्ग नें पूछा था ।
हमें “युगल सरकार” के दर्शन करनें हैं ………हमें श्रीराधारानी और श्याम सुन्दर के दर्शनों का लाभ लेना है ………बस ।
देवता इतना बोलकर मौन हो गए थे ……….कि तभी –
सामनें से आरही थीं………नीली साडी में …..गौर वर्णी …….तपते सुवर्ण की तरह जिनके देह का रँग है ………..दिव्य छबि – श्रीराधारानी जब पधारीं ………..और उधर से पधारे श्याम सुन्दर ।
सब की दृष्टि श्रीराधा में जाकर रुक गयी थी ……………..देवता सब जयजयकार कर उठे थे …….सप्तऋषियों नें मंगल गान के साथ स्तुति करनी शुरू कर दी थी ……..चारों ओर दिव्य ध्वनि हो ही रही थी ।
श्रीश्री वृन्दावनेश्वरी श्रीराधारानी की – जय जय जय ।
श्रीश्री निकुंजेश्वरी श्रीराधिका जू की – जय जय जय ।
चारों ओर से यही युगलमन्त्र गूँज रहा था ………….
राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे !!
शेष चरित्र कल –
🙌 राधे राधे🙌
[Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 35 )
गतांक से आगे –
॥ पद ॥
बनी-ठनी सुखसनी सलोनी । जगमग होति जोति अन-होनी ॥
एक एक तें अधिक न ओंनी । सोहति सदा सहज सरसोंनी ॥
निकट जुगल बर नैंन निहारें। पलकें पलक प्रान-धन वारें ॥
तिन बिच तनक न अंतर पाएँ। सदा एक रस रंग बिहारें ॥
अतिरस चावभरी उर-माहीं । झमझमाति अधिकाति उमाहीं ॥
लै-लै सौंज सबै सब पाहीं । चितै रही जुगचंद जु घाहीं ॥
छठी सहचरी चित्रा भारी। महा मोद उरभरी अपारी ॥
तिलकनि आदि आठ अनुचारी। आठ-आठ इनिकें अधिकारी ॥
ओह ! क्या सुन्दर बाग था वो ..सुर रूख भी लजा रहे थे ..उस बाग में ऐसे ऐसे वृक्ष थे ।
उन वृक्ष-लताओं में पुष्पों का गुच्छ झूल रहा था ….किन्तु इससे भी सुन्दरतम दृष्य ये था कि कई सुन्दर सखियाँ स्वयं सज रहीं थीं ….पुष्पों को तोड़कर अपने केशों में लगा रहीं थीं …कोई कोई सखी चहकती हुई कानों में पुष्प लगाकर इतरा रहीं थीं । किन्तु इन सब सखियों की प्रमुख एक सखी जिनका रूप लावण्य शब्दों का विषय नही ….बस उन्हें देखते रहो ।
ये हैं युगल सरकार की छटी सखी ….”श्रीचित्रा सखी” जी ।
हरिप्रिया जी ने मुझे बताया । श्रीचित्रा सखी ? जी । मैंने उन्हें प्रणाम किया ।
ये सब इनकी ही सखियाँ हैं ….किन्तु ये कर क्या रही हैं ? मेरे इस प्रश्न का उत्तर दिया हरिप्रिया जी ने दिया….कि ये सज रही हैं । सजना ? मेरे कुछ समझ में नही आया । कि सखियाँ तो सेवा के लिए हैं ना ! युगल को प्रसन्न करने के लिए ….फिर सजना क्यों ? ये भी सेवा है । हरिप्रिया जी ने कहा । ये क्या सेवा है ? हरिप्रिया बोलीं ….युगल को सुन्दर दीखकर उनको प्रसन्न करना । मैं अभी भी नही समझा ….तो हरिप्रिया जी ने कहा ….ये बड़ी रहस्यमयी सेवा है …..हम उनके लिए सज रहे हैं ….हमें सजने का कोई व्यसन नही है ….अरे ! सखी भाव में तो “हम” हैं हीं नहीं ….जो भी हैं …उनकी हैं …उनके लिए हैं । सुनो ! ये श्रीचित्रा सखी जी का जो परिकर है …वो बन ठन कर रहता है ….सुन्दर बनकर ….सुन्दर तो सखियाँ हैं हीं ….उसमें भी ये जब बनती हैं …सजती हैं …..तब इनका रूप देखो ! मैंने कहा ..वाणी का विषय है नहीं ।
बस , ये श्रीचित्रा सखी जी …और उनकी सखियाँ ….सुन्दर बनकर युगल के पास जाती हैं …इन्हें देखकर , सुन्दर सजी देखकर युगल प्रसन्न होते हैं …बस उसी युगल की प्रसन्नता के लिए ये सजती हैं । मैं अभी भी समझ नही पा रहा था । ये क्या था । ये सजकर युगल के पास जाती हैं ….और कान लगाकर युगल की प्रेम भरी बतियाँ सुनती हैं ….फिर कुछ कह देती हैं ….युगल को यही पसन्द है । अद्भुत रूप लावण्य से भरी हैं ये सब ….इनका रूप देखते ही बनता है ……फिर हरिप्रिया जी मुझे बोलीं …तुम इस सूक्ष्म भाव का चिन्तन करो ….तभी इस को समझ पाओगी । मैं कुछ नही बोला ….समझ तो रहा था ……किन्तु सूक्ष्मता अद्भुत थी इस भाव की ….कि हम सज रहे हैं ….अपने को सुन्दर बना रहे हैं …अपने आराध्य के लिए । ये साधना थी । श्रीचित्रा सखी जी की ये साधना । क्या प्रेमपूर्ण था ये सब । मैंने फिर उस बाग की ओर देखा …..बाग अद्भुत था ….उसमें श्रीचित्रा सखी जी की अष्ट सखियाँ पुष्प तोड़ रहीं थीं …अपनी वेणी में लगा रहीं थीं …..कोई जूड़ा में । कोई कान में भी । और मटक रहीं थीं ….मैं देख देखकर मुग्ध था । श्रीचित्रा सखी जी की अष्ट सखियाँ हैं ये …..हरिप्रिया जी ने मुझे इनके नाम भी बताए ……तिलकनी जी , रसालिका जी , वरबेनिका जी , सौर सुगंधा जी , कामिला जी , काम नागरी जी , नागर वेलि जी और सुशोभना जी ।
मैं कुछ बोलने की स्थिति में नही था …बस गदगद भाव से प्रणाम किया मैंने ।
शेष अब कल –
] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (118)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों में दास्य का हेतु-1
नारायण। गोपियाँ वर्णन करती हैं कि बाबा, तुम्हें कुछ देने की जरूरत थोड़े ही है, हम तो देख-देखके ही बेदाम की गुलाम हो गयी हैं। आप लोगों ने गोपीगीत में पढ़ा होगा-
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इंदिरा शश्वदत्र हि ।
दयति दृश्यतां दिक्षु तावकाः त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ।।
शरदुदाशये साधुजातसत् सरसिजोदर श्रीमुषा दृषा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरदनिघ्नतो नेह किं वधः ।।
जहाँ ले-दे के प्रेम होता है वह तो सौदा हुआ, प्रेम काहे का? गोपियों ने कहा नहीं- बाबा, यह बात नहीं है, तुमने तो हमको दे-दे करके फँसाया है, क्या दिया?
वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्रीगण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम् ।
दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य वक्षः श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः ।।
हम तो देख-देख के बिना दाम की गुलाम हो गयीं- ‘अशुल्कदासिका। वीक्ष्यालकावृतमुखं’ पहले तो तुम्हारे अलकों से ढके मुख को देखा। भखा। भगवान ने बालों को इसीलिए बनाया है क्योंकि ये असुन्दर को भी सुन्दर बनाते हैं। गवान ने बालों को इसीलिए बनाया है क्योंकि ये असुन्दर को भी सुन्दर बनाते हैं। हमने देखा एक श्रीमती जी थीं; उनके मुँह का रंग इतना काला था कि पाउडर लगाकर भी सुन्दर नहीं लगता था। उसके लिए बचपन में एक दोहा पढ़ा था; हमारे एक मित्र थे, उनके चाचा बड़े कवि थे। उन्होंने कई कुण्डलियाँ लिखी थीं। उसमें एक कुण्डली आयी थी। पहली बार जब मैं उसके घर गया था तब- हमारी उम्र कोई बारह-तेरह वर्ष की रही होगी। तब उन कुण्डलियों को पढ़ के हँसी बहुत आती थी पर याद सभी हो गयी थी। उनमें एक थी-
करिया मुँह पर पाउडर की शोभा कस सरसाय।
मनहुँ धुवानी भीत पर कलई दीन्ह कराय ।।
तो जब बालों को दोनों तरफ लटका लेते हैं तो मुँह कितना भी काला हो- बाल से ज्यादा काला तो होता नहीं- इसलिए गोरा दिखने लगता है।+
बाल होते हैं खुद तो काले लेकिन जिसके मुँह पर लटकते हैं उसको अपने गोरा सिद्ध करते हैं; यह बालों की महिमा है। यह तो सन्त का स्वभाव है कि अपने को काला दिखा करके भी दूसरे को गोरा सिद्ध करना। तो- वीक्ष्य अलकावृतमुखं- बालों को जब उठाते हैं, तो कंघी से भी उठाते हैं, और हाथ से भी उठाते हैं। कभी उनको बारंबार मुकुट के नीचे करने पड़ता है, कभी कान के पीछे करना पड़ता है, कभी वे आँख पर लटक जाते हैं, कभी कपोलों पर आकर स्पर्श करते हैं। जो बाल घुँघराले होते हैं, वे पूरे नहीं लटकते हैं, टेढ़े-टेढ़े होकर के लटकते है, छल्लेदार बन जाते हैं। आप श्रीकृष्ण का ध्यान करें- ‘वीक्ष्यालकावृतमुखं’ श्रीकृष्ण का मुख उनकी घुँघराली अलकों से आवृत-सा हो रहा है। गोपी का व्यङ्ग्य यह है कि श्रीकृष्ण! तुम घूँघट तो कर नहीं सकते है क्योंकि तुम पुरुष जो हुए, लेकिन यह अलको का घूँघट करके चलते हो तो हमको तुम्हारा मुख बार-बार देखने का मन होता है कि इनके भीतर मुँह की कैसी छवि है।
ये तुम्हारे काले-काले घुँघराले, बाल, महीन, घने और चिकने-स्निग्ध, तुम्हारे मुखारविन्द पर लटकर स्वयं भी शोभित हो रहे हैं। ये तुम्हारे बाल भी जड़ नहीं है, चिन्मय हैं, हिरण्यकेशः- ऐसी श्रुति है। असल में भगवान के ये चिन्मय बाल संसारी जीवों के मन की चिड़िया को फँसाने के लिए जाल हैं और मन की चंचलता के लिए ये काल हैं। देखो, केशों को भगवान की सारूप्यमुक्ति प्राप्त है, क्योंकि जैसा भगवान के शरीर का रंग है, श्याम, वैसा ही श्यम रंग बालों का है- रूप का सादृश्य हो गया। परंतु वे शिर पर रहना पसंद नहीं करते, वे लटक के मुखारविन्द का दर्शन करना पसंद करते हैं। सारूप्यमुक्ति का तिरस्कार करके भी भगवान के मुखारविन्द का स्पर्श चाहते हैं। माने भगवान की सेवा में जो सुख है वह सारूप्यमुक्ति में नहीं है। यह बात श्रीसुबोधिनीजी में श्रीवल्लभाचार्यजी महाराज ने कही है। अब गोपी कहती हैं कि आपके अलकों से ढके मुख पर कुण्डली की शोभा ने भी हमको आपकी दासी बना दिया है।++
गोपियों को कुण्डलों से भी सौतियाडाह होता था कि ये हर समय श्रीकृष्ण के कान ही भरते रहते हैं। श्रीमद्भागवत में बताया है कि साङ्ख्य और योग भगवान के मकराकृत कुण्डल हैं; तो मानो ये साङ्ख्य और योग कृष्ण के कान में सिफारिश करते रहते हैं कि अमुक भक्त स्वीकार करने योग्य है या नहीं। अर्थात् कोई विवेकी है या योगी है तो स्वीकार करो, वरना नहीं। भगवान को भी यह बात अच्छी नहीं लगी। सो महाराज, भगवान ने दोनों को, साङ्ख्य और योग को, ऐसा मरोड़ा कि उनको मकराकृति कर दिया। मकराकृति माने मत्स्याकृति-मछली जैसी शक्ल की। यह मछली क्या है, आप जानते हैं? बंगाली लोग तो इसे बहुत प्यार करते हैं। यह काम की ध्वजा है। जो नारायण के कुण्डल हैं, जो ईश्वर या भूमापुरुष के कुण्डल हैं, वे तो साङ्ख्य और योग की सिफारिश करते हैं, परंतु श्रीकृष्ण भगवान के कान में जो कुण्डल हैं वे मकराकृति हैं इसलिए वे तो काम के सिफारिशी हैं। माने कृष्ण के प्रति जिसके हृदय में काम है, उसकी सिफारिश ये श्रीकृष्ण से करते हैं कि यह तुमको चाहने वाला प्रेमी है, तुम्हारे प्रति कामवाला है, इसको तुम स्वीकार करो। बिहारी का एक दोहा है-
मकराकृति गोपाल के कुण्डल सोहत कान ।
मनहुँ समर घर करि धँसौ त्यों ही लसत निसान ।।
गोपाल के कुण्डल जो हैं मकराकृति हैं और कान में शोभायमान हैं। मानो सारी दुनिया को जीतकर काम आया और आकर कृष्ण में प्रविष्ट हो गया, और उसकी विजय वैजयन्ती जो मकराकृति है वह श्रीकृष्ण के कानों के पास फहरा रही है।
जैसे बालों को सारूप्य मुक्ति मिली है वैसे कानों के कुण्डलों को सामीप्य मुक्ति मिली है, परंतु वे सामीप्यमुक्ति नहीं चाहते हैं। क्या चाहते हैं?- कुण्डलश्रीगण्डस्थलं- कुण्डलों की जो गण्डस्थली है, कुण्डलों की जो शोभा है, वह आकर भगवान के कपोलों पर चमकती रहती है, नाचती रहती है। भगवान का जो मुखारविन्द है, कपोल हैं, वह एक सरोवर के समान हैं और उनको नीला रंग मानो उस सरोवर में नीला जल है। उस नील सरोवर में उनकी आँखों की दो मछली तो ऊपर नाचती रहती हैं और ये मकराकृति कुण्डल की जो दो मछली हैं कपोलों पर आकर उनकी जो परछाईं पड़ती है, वह नाचती रहती है।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
🪻🪻🪻🪻🪻🪻
श्लोक 6 . 42
🪻🪻🪻🪻🪻
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् |
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् || ४२ ||
अथवा – या; योगिनाम् – विद्वान योगियों के; एव – निश्चय ही; कुले – परिवार में; भवति – जन्म लेता है; धि-मताम् – परम बुद्धिमानों के; एतत् – यह; हि – निश्चय ही; दुर्लभ-तरम् – अत्यन्त दुर्लभ; लोके – इस संसार में; जन्म – जन्म; यत् – जो; ईदृशम् – इस प्रकार का |
भावार्थ
🪻🪻🪻
अथवा (यदि दीर्घकाल तक योग करने के बाद असफल रहे तो) वह ऐसे योगियों के कुल में जन्म लेता है जो अति बुद्धिमान हैं | निश्चय ही इस संसार में ऐसा जन्म दुर्लभ है |
तात्पर्य
🪻🪻🪻
यहाँ पर योगियों के बुद्धिमान कुल में जन्म लेने की प्रशंसा की गई है क्योंकि ऐसे कुल में उत्पन्न बालक को प्रारम्भ से ही आध्यात्मिक प्रोत्साहन प्राप्त होता है | विशेषतया आचार्यों या गोस्वामियों के कुल में ऐसी परिस्थिति है | ऐसे कुल अत्यन्त विद्वान होते हैं और परम्परा तथा प्रशिक्षण के कारण श्रद्धावान होते हैं | इस प्रकार वे गुरु बनते हैं | भारत में ऐसे अनेक आचार्य कुल हैं, किन्तु अब वे अपर्याप्त विद्या तथा प्रशिक्षण के कारण पतनशील हो चुके हैं | भगवत्कृपा से अभी भी कुछ ऐसे परिवार हैं जिनके पीढ़ी-दर-पीढ़ी योगियों को प्रश्रय मिलता है | ऐसे परिवारों में जन्म लेना सचमुच ही अत्यन्त सौभाग्य की बात है | सौभाग्यवश हमारे गुरु विष्णुपाद श्रीश्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज को तथा स्वयं हमें भी ऐसे परिवारों में जन्म लेने का अवसर प्राप्त हुआ | हम दोनों को बचपन से ही भगवद्भक्ति करने का प्रशिक्षण दिया गया | बाद में दिव्य व्यवस्था के अनुसार हमारी भेंट हुई |
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