Explore

Search

November 21, 2024 1:03 pm

लेटेस्ट न्यूज़

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 152 !!(1),महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (136),श्रीमद्भगवद्गीता & : !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! : Niru Ashra

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 152 !!(1),महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (136),श्रीमद्भगवद्गीता & : !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! : Niru Ashra

Niru Ashra: 🌳🌳🌻🌻🌳🌳

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 152 !!

गोलोक धाम
भाग 1

🍁🍁🍁☘️🍁🍁🍁

वज्रनाभ ! तुम्हारा यह देश काल तो सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के मन की कल्पना ही तो है ……..ब्रह्मा जी के मन में ही ये सब है …….कह सकते हो ये सब ब्रह्मा जी का सपना है ।

महर्षि बोलते गए ……..आज भाव जगत से बाहर आही नही पा रहे महर्षि शाण्डिल्य ।

पर अवतारकाल में उन्हीं युगल की इच्छा से लीला और लीला परिकर सब प्रकट हो जाता है………लम्बी साँस ली महर्षि नें ……….

अब अवतारकाल समाप्त हो गया है ………युगल निकुञ्ज में प्रवेश कर चुके हैं ……..हाँ अवतारकाल में सबको सुलभ थे युगल …….पर अब जो प्रेम से सिक्त हैं……..वही युगलवर का है ।

महर्षि शाण्डिल्य किसी और लोक की बात करनें लगे थे ………हाँ पहले तो वो ‘गोलोक धाम” में ही पहुँच गए थे……और……..

मनसुख अभी तक तू सोया है ?

…..ब्रह्ममुहूर्त का समय हो गया …….उठ ।

मनसुख अपनी माता पौर्णमासी के पास कभी सोया ही नही ………..सब गोपियाँ इसको स्नेह देती हैं …………उनके पुत्र मनसुख को छोड़ते नही हैं …….इसलिए ये किसी भी ग्वाल सखा के यहाँ सो जाता है ……..

अब उठो……जाना नही हैं ……कहीं कन्हैया उठ गया तो ! अरे ! पहले हमें जाना चाहिए नन्दभवन में ……..

क्या ब्रह्म मुहूर्त हो गया ? …………चलो फिर …………मनसुख तो कन्हैया का नाम सुनते ही गहरी नींद में भी उठ जाता है ।

अरे ! स्नान नही करोगे मनसुख ?

यमुना में कन्हैया के साथ ही स्नान होगा ।

वो तो चल दिया ………………..

नन्दभवन में भीड़ लगी है ………………ग्वाल बाल सब खड़े हैं ।

तभी नन्द भवन का द्वार खुला ………………..

क्यों बालकों ! तुम्हे नींद भी आती है या नही ?

सुबह ब्रह्ममुहूर्त भी हुआ नही …….कि आगये !

मैया यशोदा आगयीं थीं……और स्नेह मिश्रित डाँट लगा रही थीं ।

हम कुछ कह तो रहे नहीं हैं …………सोनें दे मैया कन्हैया को …….बस हमें एक बार देखनें दे ………….मनसुख कहाँ माननें वाला था……भीतर ही चला गया…………देख ! उठाना नही ………….मनसुख ! मारूँगी तुझे…….मैया यशोदा गाल में हल्की चपत देती हैं मनसुख के ।

क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –

🌷 राधे राधे🌷
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (136)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम

जीवन-मुक्त पुरुष में भ्रान्ति तो नहीं होती, लेकिन भ्रान्ति प्राग्भाव तो रहता है माने पहले भ्रान्ति थी और मिट गयी परंतु कृष्ण में तो पहले भी भ्रान्ति नहीं थी कि मैं जीव हूँ, परिच्छिन्न हूँ, फिर वह कटेगी कहाँ? उसको काटने के लिए कृष्ण को ब्रह्म कहने की जरूरत नहीं है। लेकिन महाराज श्रीकृष्ण ने ‘आत्मारामोऽपि अरीरमत्’ गोपियों का इतना प्रेमोद्वार श्रवण करने के बाद अपनी तटस्थता का आग्रह नहीं रखा, असंगता का आग्रह नहीं रखा, आत्मारामता का आग्रह नहीं रखा। उनको ऐसा नहीं लगा कि हम अपने आत्मारामता से च्युत हो जायेंगे, अगर गोपियों के साथ नृत्य करेंगे तो। ऐसा नहीं लगा तो ‘आत्मारामोऽपि अरीरमत्’ उन शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, भगवान् श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ विहार किया।

श्रीसनातन गोस्वामी जी एक प्रसंग में यह बात कहते हैं कि जितनी गोपियाँ थीं, जो घर-द्वार छोड़कर दौड़ी थीं, अन्योन्यमलक्षतोद्यमाः- एक दूसरे से छिपाकर दौड़ी थीं। तो राधारानी समझ गयीं कि ये जब इकट्ठी होंगी, तो आपस में इनमें सद्भाव नहीं होगा, सौतियाडाह हो जायेगा, वैमनस्य हो जावेगा। तो वे आयी नहीं चुपचाप एक नित्यनिकुंज में बैठी रहीं। उन्होंने सोचा कि देखें, कृष्ण हमको तो बड़ी जल्दी मना लेते हैं, उन सौतियाडाह से ग्रस्त गोपियों को कैसे मनाते हैं। इसलिए वह नित्यनिकुंज में बैठकर तमाशा देख रही थीं कि कृष्ण इतनी गोपियों को एक साथ कैसे प्रसन्न करते हैं। और ये महाराज नटनागर तो बड़े चतुर हैं- क्या किया कि लौट जाओ कहकर सबकी उपेक्षा कर दी; उसका परिणाम यह हुआ कि सब एकराय हो गयीं, रोने में सबका सद्भाव बन गया और कृष्ण फँस गये। तब राधारानी ने देखा कि अब सबका मन ठीक है तो अब हम भी चलकर मिल जायँ। आकर झट श्रीकृष्ण के बगल में खड़ी हो गयीं।

आत्मारामोऽपि- अब तक तो कृष्ण अकेले थे और अब जब श्रीराधारानी आकर उनके बगल में खड़ी हो गयीं तो बोलीं- प्यारे, ये सब गोपियाँ बहुत दुःखी थीं, और तुमसे सचमुच सच्चा प्रेम करती हैं; पहले तो मैं नहीं जानती थी कि इतना प्रेम करती हैं, लेकिन आज देख लिया कि इनका तुमसे बहुत प्रेम है; तो जब इतना प्रेम है तो आओ, हम सब मिलकर रासविलास करें; इनको भी आनन्द आवे, हमको भी आनन्द आवे, इसके लिए, आत्मारामोऽपि अरीरमत कहा है। जैसे गीता में है- अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । वैसे ही- आत्मारामोऽपि- राधया आलिंगतोऽपि- आकर के यद्यपि श्री राधारानी ने उनका आलिंगन कर लिया तथापि दोनों में एकमन होकर कहा कि आनन्द मिलना चाहिए, उन्हें उनके प्रेम का रस प्राप्त होना चाहिए।+

जैसे धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, मोक्षशास्त्र ये अलग-अलग शास्त्र हैं वैसे एक प्रेम शास्त्र भी है। जैसे योगी लोग मानते हैं कि अपना मन क्षणमात्र के लिए योग में स्थित हो जाय तो सत्स्वरूप परमात्मा से तादात्म्य हो जाय। सांख्यवादी मानते हैं कि क्षणमात्र आत्मस्वरूप में स्थिति हो जाय विवेक ख्याति के द्वारा, तो बस यही परमात्मा की प्राप्ति है। प्रेमी लोग मानते हैं कि अपने भीतर जो आनन्दस्वरूप परमात्मा बैठा है, जहाँ उसके साथ एक हुए, बस आनन्द ही आनन्द है। किसी को कोई दूसरा आनन्द नहीं दे सकता; और देता भी नहीं है, बस हमको ख्याल ही होता है। आनन्द का स्वभाव है कि वह अपने हृदय में होता है। अपने हृदय में होवे तब तो अनुभव होवे और हम दूसरे को दे भी दें; और अपने हृदय में न हो, तो किसी से उधार लेने की कितनी भी कोशिश करें वह उधार लिया हुआ आनन्द काम करते समय चला जायेगा, दूसरी तरफ मन जाने पर चला जायेगा। नींद में चला जायेगा, दूसरी वस्तु की इच्छा होने पर चला जायेगा। नींद में चला जायेगा, दूसरा वस्तु की इच्छा होने पर चला जायेगा। आनन्द का निवास अपने आप में है, बाहर नहीं है।

जब हृदय में प्रेम का अंकुर उदय होता है, तब आनन्द का प्रकाश, आनन्द का विकास, अपने भीतर से ही होता है और वृत्तियों में आनन्द का रास होता है। परंतु अपनी इच्छाओं को संसार में विकीर्ण कर देने से, बिखेर देने से यह आनन्द का रास समाप्त हो जाता है। जब हृदय में प्रेम का अंकुर उदय होता है तब मनुष्य के जीवन में कुछ लक्षण प्रकट होते हैं।

(1) क्षमा- अगर कोई अपराध करता होवे, तो क्षमा कर देना; उसके अपराध की परंपरा को आगे नहीं बढ़ाना, नहीं तो प्रियतम् के स्मरण की जगह अपराधी का स्मरण होने लग जायेगा।
(2) शान्ति और समय का सदुपयोग- अपने समय को व्यर्थ नहीं गँवाना; सारा समय अपने प्रियतम को सुख पहुँचाने की क्रिया में व्यतीत होवे, चाहे उसके लिए चंदन घिसो, माला फेरो, चाहे रोटी बनाओ, चाहे उससे मिलने के लिए थोड़ी देर विश्राम कर लो, लेकिन समय सारा-का-सारा उसके लिए होना चाहिए।

(3) रागाभाव- किसी से राग नहीं करना, माने किसा का रंग अपने दिल पर चढ़ने न पाये। आँख बन्द करते हैं तो मन में किसकी मूरत दिखती है? भाई की, दुश्मन की, मित्र की, स्त्री की पुत्र की, जिसकी याद आती है या जो मन में दिखता है, बस समझो कि उसी का राग में दिल चढ़ा हुआ है।++

आँख बन्द करके मन में किसी दूसरे की तस्वीर नहीं आनी चाहिए, अपने प्रियतम की आनी चाहिए, परमात्मा की होनी चाहिए, भगवान् की होनी चाहिए, मुरलीमनोहर पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर की होनी चाहिए।

(4) अभिमानाभाव- हृदय में मान-वृत्ति माने अभिमान नहीं होना चाहिए। सब दुःखों की जड़, उनका बीज अभिमान में ही रहता है। अपने मन के मुताबिक नहीं हुआ, अपनी वासना पूरी नही हुई, मालूम हो गया कि अपमान हो गया, तो दुःख आयेगा। अपमान न तो आत्मा का होता है न प्रेमी का; अभिमान का अपमान होता है। अपनी इच्छा के विपरीत कुछ हो गया तो अभिमान पर चोट लगी; और अपनी इच्छा के अनुकूल हुआ तो अभिमान का वजन थोड़ा और बढ़ गया।

इच्छा की प्रतिकूलता में भी दुःख, और इच्छा की अनुकूलता में भी दुःख; हर्ष और विषाद दोनों दुःख के मूल हैं। तो हँसना हो तो प्यारे की याद करके और रोना हो तो प्यारे के लिए। यह जो दुनिया की चोट बैठती है अपने मन पर, वह नहीं बैठनी चाहिए। अपने अभिमान की रक्षा में जब आदमी लग जाता है, तो स्वनिष्ठ हो जाता है और तब भगवत्-प्रेम नहीं होता। यह बात गोपियों के जीवन में आगे आयी है जब उन्होंने अपने को परमसुन्दरी माना और यह ख्याल हुआ कि हमारा सौभाग्य इतना बड़ा। कृष्ण ने कहा कि अब शीशा ले लो और उसमें अपना मुँह देखो। अब हम तुम्हारे सामने रहने वाले नहीं है, क्योंकि जब तुम ही इतनी बड़ी हो, तो शीशे में अपना मुँह देखो, हमें देखने की क्या जरूरत है?

तासां तत् सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः ।
प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत ।।

(5)आशाबन्ध- इसी जीवन में हमको हमारे प्रियतम मिलेंगे-मिलेंगे राम, मिलेंगे राम, यह आशा दृढ़ बँध जानी चाहिए। निराशा होने से प्रेम शिथिल हो जाता है। जहाँ तक मिलन की आशा है वहाँ तक श्रृंगाररस है; और जहाँ मिलन की आशा टूट जाती है वहाँ करुणरस हो जाता है। तो मन में आशा रहे, मिलन की प्रतीक्षा रहे और व्याकुलता, समुत्कण्ठा हो। मिलने के लिए प्राण जैसे कण्ठ में लगे हों। भगवान् का नाम मुख में आता रहे और उनके गुणगान और ध्यान में रुचि बनी रहे।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷
श्लोक 7 . 20
🪷🪷🪷🪷🪷
कामैस्तैस्तैर्ह्रतज्ञानाः प्रपद्यन्तेSन्यदेवताः |
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया || २० ||

कामैः – इच्छाओं द्वारा; तैः तैः – उन उन; हृत – विहीन; ज्ञानाः – ज्ञान से; प्रपद्यन्ते – शरण लेते हैं; अन्य – अन्य; देवताः – देवताओं की; तम् तम् – उस उस; नियमम् – विधान का; आस्थाय – पालन करते हुए; प्रकृत्या – स्वभाव से; नियताः – वश में हुए; स्वया – अपने आप |

भावार्थ
🪷🪷🪷
जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं |

तात्पर्य
🪷🪷🪷
जो समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो चुके हैं, वे भगवान् की शरण ग्रहण करते हैं और उनकी भक्ति में तत्पर होते हैं | जब तक भौतिक कल्मष धुल नहीं जाता, तब तक वे स्वभावतः अभक्त रहते हैं | किन्तु जो भौतिक इच्छाओं के होते हुए भी भगवान् की ओर उन्मुख होते हैं, वे बहिरंगा द्वारा आकृष्ट नहीं होते |

चूँकि वे सही उद्देश्य की ओर अग्रसर होते हैं, अतः वे शीघ्र ही सारी भौतिक कामेच्छाओं से मुक्त हो जाते हैं | श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि मनुष्य को चाहिए कि स्वयं को वासुदेव के प्रति समर्पित करे और उनकी पूजा करे, चाहे वह भौतिक इच्छाओं से रहित हो या भौतिक इच्छाओं से पूरित हो या भौतिक कल्मष से मुक्ति चाहता हो | जैसा कि भागवत में (२.३.१०) कहा गया है –

अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः |
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ||

जो अल्पज्ञ हैं और जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक चेतना खो दी है, वे भौतिक इच्छाओं की अविलम्ब पूर्ति के लिए देवताओं की शरण में जाते हैं | सामान्यतः ऐसे लोग भगवान् की शरण में नहीं जाते क्योंकि वे निम्नतर गुणों वाले (रजो तथा तमोगुणी) होते हैं, अतः वे विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं | वे पूजा के विधि-विधानों का पालन करने में ही प्रसन्न रहते हैं | देवताओं के पूजक छोटी-छोटी इच्छाओं के द्वारा प्रेरित होते हैं और यह नहीं जानते कि परमलक्ष्य तक किस प्रकार पहुँचा जाय | किन्तु भगवद्भक्त कभी भी पथभ्रष्ट नहीं होता | चूँकि वैदिक साहित्य में विभिन्न उद्देश्यों के लिए भिन्न-भिन्न देवताओं के पूजन का विधान है, अतः जो भगवद्भक्त नहीं है वे सोचते हैं कि देवता कुछ कार्यों के लिए भगवान् से श्रेष्ठ हैं | किन्तु शुद्धभक्त जानता है कि भगवान् कृष्ण ही सबके स्वामी हैं | चैतन्यचरितामृत में (आदि ५.१४२) कहा गया है – एकले ईश्र्वर कृष्ण, आर सब भृत्य – केवल भगवान् कृष्ण ही स्वामी हैं और अन्य सब दास हैं | फलतः शुद्धभक्त कभी भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए देवताओं के निकट नहीं जाता | वह तो परमेश्र्वर पर निर्भर रहता है और वे जो कुछ देते हैं, उसी में संतुष्ट रहता है |
[ Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 59 )

गतांक से आगे –

॥ पद ॥

जो कोउ प्रभु कें आश्रय आवैं। सो अन्याश्रय सब छिटकावैं ॥
बिधि-निषेध कें जे जे धर्म । तिनिकों त्यागि रहें निष्कर्म ॥
झूठ क्रोध निंदा तजि देंहीं। बिन प्रसाद मुख और न लेंहीं ॥
सब जीवनि पर करुना राखें। कबहुँ कठोर बचन नहिं भाखें ।॥
मन माधुर्य-रस माहिं समोवैं। घरी पहर पल वृथा न खोवैं ॥
सतगुरु के मारग पगु धारैं। श्रीहरि सतगुरु बिचि भेद न पारौं ।॥
ए द्वादस लच्छिन अवगाहैं। जे जन परा परम-पद चाहैं॥
जाके दस पैड़ी अति दृढि हैं। बिन अधिकार कौन तहाँ चढि हैं ।।
पहिलें रसिक जनन को सेवैं। दूजी दया हिये थरि लेवें ॥
तीजी धर्म सुनिष्ठा गुनि हैं। चौथी कथा अतृप्त है सुनि हैं।
पंचमि पद पंकज अनुरागैं । षष्टी रूप अधिकता पारौं ।॥
सप्तमि प्रेम हिये विरधावैं। अष्टमि रूप ध्यान गुन गावैं ॥
नवमी दृढ़ता निश्चैं गहिबैं। दसमी रसकी सरिता बहिवैं ॥
या अनुक्रम करि जे अनुसरहीं। सनै-सनै जगतें निरबरहीं ।॥
परमधाम परिकर मधि बसहीं। श्रीहरिप्रिया हितू सँग लसहीं ॥ ३१ ॥

दस सीढ़ी हैं …इन सीढ़ियों से अब चढ़ना है …संभल कर चलने की आवश्यकता है …उससे चढ़ने पर ही आप निकुँज में पहुँच पायेंगे । हरिप्रिया जी ने फिर मुझे बताना आरम्भ कर दिया था ।

अभी तक मैंने जो तुम्हें बताये विधि निषेध वो सब इस सीढ़ी तक पहुँचने के थे …यहाँ तक भी पहुँच पाना बड़ा दुरूह है । मैंने हाथ जोड़कर कहा ..आप बताइये ..वो दस सीढ़ी क्या क्या हैं ?

हरिप्रिया जी बोलीं – पहली सीढ़ी है …”रसिक जनों की सेवा” यानि रसिकों का संग करें और उनकी आज्ञा में ही रहें । ये पहला काम है ..इसके बिना आगे गति नही होगी । हरिप्रिया जी स्पष्ट करती हैं …..आपका संग जैसा होगा वैसे ही आप आगे बढ़ेंगे ….इसलिए प्रथम तो संग ही है । किन्तु सखी जी ! आज कल रसिक जन मिलते नहीं हैं ? मेरी इस बात पर गम्भीर हो हरिप्रिया जी बोलीं ….ऐसा नही है ….तुम्हारे मन में जिसकी चाह होगी अस्तित्व को उसे तुम्हारे सामने उपस्थित करना ही होगा ……इसलिए रसिकजन …हैं ….खूब हैं …किन्तु तुम उन्हें खोज कहाँ रहे हो ? किन्तु नकली हैं रसिक जन । ये भी मैंने कहा ….तो हरिप्रिया बोलीं ….”नकली रसिक जन हैं तो असली भी तो होंगे “? पहले असली ही आया है नकली तो बाद में आया है । इसलिए ये बात मत करो कि असली नही हैं ….सब नकली हैं ….तुम क्या हो ? तुम स्वयं नकली साधक हो तो तुम्हें असली रसिक नही मिलेंगे ….हाँ तुम स्वयं असली हो …ईमानदार हो …तो तुम्हें ईमानदार ही मिलेंगे …यानि जिन्हें खोज रहे हो अस्तित्व उसकी व्यवस्था बना देगा । हरिप्रिया जी कहती हैं …इसलिए रसिक जनों को खोजो …वो मिलेंगे फिर उनका संग करो ।

अब दूसरी सीढ़ी ? मैंने पूछा …तो हरिप्रिया जी ने कहा ….”दया हृदय में धारण करें”।

रसिक जनों की सेवा करोगे तो ये फल है …कि तुम्हारा हृदय दया से भर जाएगा ….तुम स्वयं दयारूप हो जाओगे और समस्त पर दया करोगे ।

अब तीसरी सीढ़ी है …हरिप्रिया जी कहती हैं …तीसरी सीढ़ी में ….”अपने धर्म के प्रति निष्ठा” है ।

आपका धर्म क्या है ? प्रेमी का जो धर्म होता है वही धर्म आपका है । अब प्रेमी का धर्म क्या है ? प्रियतम के स्मरण में मग्न रहना …..ये प्रमुख धर्म है प्रेम का ….अगर आप प्रियतम को याद नही करते हैं उनकी याद नही आती तो आप अपने धर्म से गिर गये आपका पतन हो गया । रसना से प्रिय का नाम और नेत्रों में प्रियतम की रूप माधुरी बसी रहे । ये बड़ी महत्व की बात है । हरिप्रिया जी कहती हैं …यही है प्रेम का अपना धर्म ।

अब चौथी सीढ़ी है …..”प्यासे होकर अपने प्रियतम की कथा सुनना”। अपने प्यारे की चर्चा में तन्मय हो जाना …..उसकी बातें हमें तृप्ति देती तो हैं …किन्तु तृप्त हो नही पाते …लगता है और , और और । यही प्रेम में अनिवार्य है । अब पाँचवीं सीढ़ी है – “पूर्ण अनुराग से अपने प्रियतम के चरण का चिन्तन”। यह बहुत आवश्यक है ….स्मरण रहे जिसके प्रति अगाध प्रेम का उदय होता है ….उसके चरण बड़े प्यारे लगते हैं …..उसके चरण का ही चिन्तन होता है । इसलिए तो अगाध प्रेम होने के कारण लालजी प्रियाजी के चरणों का ही चिन्तन करते हैं ।

छठी सीढ़ी …..”अपने प्रियतम के रूप माधुरी में मग्न हो जाना” । हरिप्रिया जी कहती हैं …प्रेमियों को इसलिए एकान्त ज़्यादा प्रिय है ….उन्हें अपने प्रिय के रूप में खो जाना है ….नेत्र बन्द करके हृदय में प्रिय के रूप माधुरी को निहारना है । उनकी लीलाओं का दर्शन करना है ।

सातवीं सीढ़ी है …….”हृदय में प्रेम का भर जाना”। ये स्थिति भी है । यहाँ तक पहुँचते पहुँचते साधक प्रेम से लवालव हो जाता है ….भर जाता है वो । फिर तो वो देखता है तो प्रेम ही …सुनता है तो प्रेम ही ….वो चलता है तो प्रेम में ही ….वो सूँघता है तो प्रेम को ही …उसके जीवन से ही प्रेम झाँकता है ….जीवन ही उसका प्रेममय हो जाता है ।

अब आठवीं सीढ़ी है ….”रूप माधुरी का चिन्तन”।

हमारे आचार्यों ने , हमारे रसिकों ने …जो जो पद गाये हैं ….उन्हें एकान्त में बैठकर गायें….पद ऐसे हों जिसमें हमारे आराध्य का ही विलास और विहार हो …..फिर देखो …आपका चित्त पिघलकर युगलाकार हो उठेगा । तुम जैसा अपने आराध्य का चिन्तन करोगी तुम भी आराध्य की तरह ही हो उठोगी । इसलिए ये रूप माधुरी का चिन्तन गम्भीरता से करें साधक ।

नवमी सीढ़ी है …..”साधक दृढ़ता और निश्चय को धारण करे”।

पहले निश्चय करे ….कि ये मार्ग ठीक है या नही …फिर निश्चय होने पर अपने मार्ग पर दृढ़ रहे …..दृढ़ता रखे । डिगे नही अपने मार्ग से । इतनी दृढ़ता होनी चाहिए कि भगवान भी आकर कहें कि तुम ये मार्ग छोड़ दो …दूसरे मार्ग में आजाओ …तो भगवान को भी हम कह सकें …कि दर्शन देना है तो इसी मार्ग में दो ….हम मार्ग बदलने वाले नही हैं । ये है दृढ़ता ।

अब ?

हरिप्रिया जी बोलीं …..दसवीं अन्तिम सीढ़ी है ……”रस की नदी बह चलेगी” । हे रसिक साधकों ! इतना तुमने कर लिया तो पर्याप्त है …..बस अब तुम देखोगे ….कि प्रेम-रस की सरिता बह चली है …..चारों ओर रस ही रस है ….तुम ये सब देखकर प्रेम में मत्त हो जाओगे ….और बस यही तो है निकुँज । यही तो है दिव्य श्रीवृन्दावन । बस सावधान होकर ये दस सीढ़ी पार कर लो …..फिर तो “निकुँज” तुम्हारी प्रतीक्षा ही करेगा । हरिप्रिया जी ने मुझे सिद्धान्त सरलता से समझा दिया था । कैसे हमें वहाँ तक पहुँचना है ये बता दिया था । मैंने उनके चरणों में प्रणाम किया ….साष्टांग प्रणाम ।

शेष अब कल –

admin
Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

Leave a Comment

Advertisement
लाइव क्रिकेट स्कोर
कोरोना अपडेट
पंचांग