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November 24, 2024 12:07 am

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (027) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (027) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (027)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

भगवान की प्रेम-परवशता
(योगमायामुपाश्रित:)
श्रीशुक उवाच

भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ।।

अच्छा! आज रासपंचाध्यायी सुनाने से पहले दो-चार बात। ऐसा है कि सबेरे वेदान्त सुनते हैं और शाम को भक्ति की बात आप सुनाते हैं। तो दोनों में क्या संगति है? ऐसा कई लोग पूछते हैं। बात यह है कि संपूर्ण जगत् ब्रह्म है। यदि ब्रह्म से अतिरिक्त है तो मिथ्या है- यह बात केवल ब्रह्मज्ञानी के ही अनुभव में आती है और वेदान्तों में केवल ब्रह्मज्ञानी के लिए ही ऐसे वाक्य लिखे गये हैं। जो अधिष्ठान आख्यात्मिका बोध होने से पहले किसी युक्ति से, किसी विज्ञान से, किसी मशीन से, किसी भावना से, किसी मानसिक स्थिति से इस संसार को मिथ्या समझ लेता है वह गलत समझता है। वेदान्तोक्त ब्रह्मज्ञान के बिना- तत्त्वमस्यादि महावाक्य जन्य प्रत्यक् चैतन्याभिन्न ब्रह्मतत्त्व के बोध के बिना यह प्रपञ्च मिथ्या हो नहीं सकता।

ये सब जो गजल से ब्रह्मज्ञानी बनते हैं या विज्ञान से ब्रह्मज्ञानी बनते हैं या मशीन से ब्रह्मज्ञानी बनते हैं या ब्रह्म को कोई व्यावहारिक वस्तु समझकर ब्रह्मज्ञानी बनते हैं; झूठे ब्रह्मज्ञानी हैं। ब्रह्मज्ञान तो जब कोई शुद्ध अन्तःकरण पुरुष त्वं-पद-लक्ष्यार्थ और तत्पद-लक्ष्यार्थ- दोनों को वेदान्त की रीति से समझकर, दोनों की एकता को जानकर अपने को ब्रह्म अनुभव करता है, तभी होता है और तभी अपने से अन्यत्व के मिथ्यात्व को जानता है; यही ब्रह्मज्ञान की प्रणीला है और दूसरी सब प्रणाली झूठी है। ये जो अहं-अहं करते हैं सो भी और जो ‘नेति-नेति’ करते हैं, सो भी, उपनिषद् के बिना जो ब्रह्मज्ञान की प्रणाली है वह अर्थशास्त्रीय है और सच्ची नहीं है। ब्रह्मज्ञान के पहले यह जगत् बिलकुल सच्चा है। अब इसमें जरा ईश्वर की बात देखो! असल में, दुनिया के जितने साधन है, वे ईश्वर को काबू में करने के लिए हैं। आप इसमें कुछ अतिश्योक्ति मत मानना। यह आत्मा स्वभाव से ब्रह्म है और यह सबको अपने काबू में करना चाहता है, यहाँ तक कि ईश्वर को भी अपने काबू में रखना चाहता है।*

योगमायामुपाश्रित:-भगवान की प्रेम-परवशता

यह ईश्वर से भी यही अपेक्षा रखता है कि जो हम कहें वही ईश्वर करे। हम कहें कि वर्षा कर तब ईश्वर वर्षा करे और हम कहें कि गरमी डाल तो गरमी डाले। हम अपनी हुकूमत ईश्वर पर भी डालना चाहते हैं। यह बात हमारे स्वभाव में हमारी छठी में डाली हुई है। चेले लोग गुरु को अपनी इच्छा के अनुसार चलाना चाहते हैं; पत्नी पति को अपनी इच्छा के अनुसार चलाना चाहती है। नौकर भी मालिक से यही अपेक्षा रखता है कि हमारे कहे अनुसार ये काम करें। यह दुनिया सहज स्वभाव है। अब यह सवाल हुआ कि हम ईश्वर काबू कैसे पायेंगे? एक बात यह हुई कि यदि हम पुण्य आचरण करें, धर्माचरम करें कि चूँकि ईश्वर हमारे धर्म का, हमारे कर्म का फल देता है। अतः हम जो-जो चाहेंगे, सो-सो ईश्वर देगा। हम कहें हे ईश्वर, एक बेटा हमारे पास पार्सल करके भेज दे, हमारे पास नोट का बण्डल भेज दे, एक बड़ी सुघर पत्नी भेज दे। तो इसके लिए हमें धर्माचरण करना होगा।

जब हम धर्माचरण करेंगे तो ईश्वर हमारे ऊपर प्रसन्न होगा और प्रसन्न होंगे तो जो चाहेंगे सो ईश्वर देगा। इस प्रकार ईश्वर से मनमानी चीज लेने का उपाय हुआ धर्म का अनुष्ठान। अच्छा, यह कैसे होता है, यह भी आपको सुना दूँ। यह ऐसे होता है कि हमारे जीवन में पाप वासना की अधिकता होती है और पुण्य और धर्म वासना को घटाने से होता है। तो जितनी-जितनी वासना हम कम करते हैं और शास्त्र-विधि के अनुसार आचरण करते हैं माने हम अपने को नियंत्रित करते हैं, उतना-उतना ही ईश्वर हमारे धर्मानुष्ठान के द्वारा नियंत्रित होकर ईश्वर भी नियंत्रित हो जाता है।

कर्म एव गुरुरीश्वर:- हमको सुख- दु:ख देने में ईश्वर कर्माधीन है जब हम अपने को विधि के अधीन करते हैं तो ईश्वर भी विधि के अनुरूप फल देने के लिए अपने को कर लेता है। जब हम विधिपूर्वक जप करते हैं, पुत्रेष्टि यज्ञ करते हैं, तब ईश्वर विधिपूर्वक पुत्र देता है। जब हम पशु-याग करते हैं तब ईश्वर स्वर्ग देता है। एक बात समझदार लोग ध्यान में रखेंगे। जब हम वेदशास्त्र के द्वारा नियंत्रित होकर धर्माचरण करते हैं तब हृदय में बैठे हुए अन्यर्यामी नियन्ता ईश्वर से हमारा तादात्म्य हो जाता है और फिर हमारी इच्छा कि हमको यह मिले, वह ईश्वर की इच्छा हो जाती है और वह चीज मिल जाती है।*

अब देखो- दूसरी चीज सुनाते हैं। हम बात रासपञ्चाध्यायी की करेंगी, आपको इसका विज्ञान सुनाते हैं। दूसरी बात है कि यदि हम अपने को असंग पुरुष के रूप में जानना चाहते हैं, अनुभव करना चाहते हैं, तो ईश्वर का पुरुष- विशेष के रूप में ध्यान करना पड़ेगा। यह योगशास्त्र हुआ। जब हम पुरुष-विशेष का ध्यान करके आत्मापुरुष को पुरुष-विशेष के साथ तादात्म्यपत्र कर देंगे तब जैसे ईश्वर संपूर्ण जगत् से न्यारा है, तटस्थ है, पुरुष विशेष है, वैसे हम भी तटस्थ हो जाएंगे। असल में हम ईश्वर से एक हो कर ही ईश्वर पर काबू पाते हैं। ईश्वर वह है जो जगत् का नियन्ता है औ जब हम अपने आचरण के द्वारा, साधना के द्वारा, भीतर ही भीतर ईश्वर के पास पहुँच जाते हैं तब जो चाहते हैं सो जगत् हो जाता है। सिद्धि प्राप्त करने का तरीका ही यही है।

अच्छा! अब देखो, तीसरी बात! जब हम अपने को निर्विशेष ज्ञान के रूप में जानते हैं तब निर्विशेष ज्ञान-स्वरूप ईश्वर के साथ एकता हो जाती है। तब सब भ्रम मिट जाते हैं। हम भी निर्विशेष हो जाएंगे; हम और दूसरी वस्तु- माने दुनिया न हमसे अलग, न हम दुनिया से अलग! निर्विशेष माने निर्भेद। घड़ा में एक विशेष है, कपड़ा में एक विशेष है। लेकिन जब घड़ा और कपड़ा वाले विशेष को बाधित करके हम निर्विशेष से एक हो जाएंगे तो हम ही जीव, हम ही ईश्वर, हम ही जगत और सारी विशेषताएँ बाधित हो गयीं।

अब जरा प्रेमी ईश्वर की, रास-पञ्चाध्यायी की बात करते हैं। आनन्दरूप जो ईश्वर है, उसको कैसे काबू में करें? वैसे तो ईश्वर की सारी दुनिया का मालिक है, सबको अपने काबू में रखता है, लेकिन जैसे धर्मात्मा लोग अपने धर्म के द्वारा उसको काबू में करते हैं, योगी लोग योग के द्वारा काबू में करते हैं, ध्यानी लोग ध्यान के द्वारा अपना स्वरूप ही बना लेते हैं वैसे प्रेमी लोग प्रेम के द्वारा अपने काबू में करते हैं। सारे जगत् का नियन्ता होने पर भी ईश्वर प्रेम के द्वारा नियंत्रित है। तुम अपने को प्रेममय बना लो- प्रेममय, रस-ही-रस, रस-ही-रस। जब कोई तुम्हारे अन्दर पत्थर का डला नहीं रह जाएगा, प्रेम ही प्रेम हो जाएगा, तब तुम आनन्दस्वरूप, प्रेमस्वरूप, रस-स्वरूप परमात्मा से एक हो जाओगे। इसीलिए भक्ति सिद्धांत में पहले पूजा, फर समर्पण, फिर शरणागति, फिर प्रेम- ये चार भूमिका बनायी। पहले तुम्हारे पास जो चीज होवे उसके द्वारा भगवान् की पूजा करो। ये जो करोड़पति लोग पाँव दबाकर अपना काम निकालता चाहते हैं वह गलते है; और जो गरीब लोग पैसा खर्च करके अपना काम बनाना चाहते हैं वह भी गलत है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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